जिंदगी
*बेटा- बहू के बिन ज़िंदगी* बात उन दिनों की है जब मैं लखनऊ में रहती थी। मेरे बगल में ही शीतला रानी आंटी रहती थीं। जब मैं शाम को बच्चे को टहलाने या सब्ज़ी लेने जाती तो अक्सर ही उनसे मुलाकात हो जाती। और वो पूछ लेतीं,कैसी हो बेटा जी? क्या करती हो? बच्चे कैसे हैं? हस्बैंड कैसे हैं? क्या करते हैं? उनसे बातें करके ऐसा महसूस होता मानो वो बात करने वाला कोई व्यक्ति ढ़ूॅंढ़ती रहती हैं। इस तरह दो, चार, पाॅंच मिनट की बात क़रीब-क़रीब रोज़ ही आंटी से हो जाया करती। एक दिन जब मैं शाम को बच्चे को टहलाने के लिए पार्क में गई तो आंटी भी वहाॅं बैठी हुई थीं। उन्होंने मुझसे अपने घर चलने को कहा,मैं मना न कर सकी और उनके घर गई। उन्होंने ताला खोला और मुझे बड़े प्रेम से अंदर ले गईं। घर देखकर लग रहा था कि आंटी संपन्न हैं घर पूरी तरह से सज़ा- सॅंवरा था सारी चीजें घर में अत्याधुनिक और उच्च स्तर की थीं। मैं सोफे पर बैठ गई आंटी अंदर गईं और मेरे लिए पानी लेकर आईं, और चाय रखने जा रही थीं कि मैंने उन्हें मना कर दिया,और बोली बैठिए बातें करते हैं। बात करते-करते मैंने आंटी से कहा - आंटी मुझ...