कुछ किरदार

 कुछ किरदार हमेशा नेपथ्य में ही रहे............ 


मंझली बुआ नहीं पूछी गई किसी काज में

जबकि हर काज की सफलता 

उन पर ही निर्भर रही....

रसोई में जुटी रही जाने कितने पहर,

चूल्हे की गीली लकड़ियों में......

किलो किलो रोटियां सेकती

और सराहे जाते परोसने वाले हाथ,

बिन ब्‍या‍ही लड़कियां ऐसे ही जिये जाती हैं…. 


बड़ी मौसी को कभी आतिथ्‍य न मिला मैके में, 

जबकि परिवार की धुरी रही सदा…. 

गाती बजाती, चु‍टकियों में काम निपटाती. 

सदा बिन बुलाये ही चली आती, 

अपना मैके बचाये रहती…. 

आदमी का निठल्‍लापन भुगतती रहती….. 


बडके चाचा कोल्‍हू के बैल थे…. 

बाजार-खेत का हर बोझ था उनके जिम्‍मे,

तन-मन-धन सब लुटाते रहे  

फिर भी सदा निखट्टू ही समझे गये, 

सर झुकाये बातें सुनते….. 

और अपनी सरलता का दाम चुकाते रहे जीवन भर….. 

बिन घरनी का घर चलाते रहे…..


छोटी मामी परदे से ही न उबर पाई कभी, 

खुद को छुपाये रहती हर मौके पर, 

लोगों की सवांलिया निगाहों  से…. 

न रो पाती, न हंस पाती जी भर के…. 

बच्‍चे न जन पाने का बोझ उठाती रही जीवन भर….. 

समझ न पाई कि सवालों के घेरे कभी मर्दोे को क्‍यों नहीं घेरते…. 


चचिया सास असगुनी ही रही हमेशा 

जबकि हर शुभता की शुरूवात में वही थी, 

ओट में हो जाती खुद ही सगुन विचार के बखत 

उनका जीवट भी कौतूहल ही था….

वैधव्‍य के बाद भी जी गई थी सालों साल 

मुठ्ठी भर भात और तन के दो कपड़ो के साथ 

बेहयाई ही तो थी ये जो मर न गई आदमी के साथ….. 


नेपथ्‍य के किरदार ही रंगमंच के किरदारों में रंग भरते हैं

खुद बेरंग रहते हुए...............

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