गुड़िया और चप्पल
"ये कितने की है लखन....?
" बस डेढ़ सौ की, लेकिन आपको तीस औऱ कम कर दूँगा...ले लीजिए ।"
"ठीक है , ठीक है, फ़िर दे दो...बहुत दिनों से इस घिसी चप्पल के भरोसे चल रहा हूँ ।"
पांव में फफोले उभर आये है, लाओ यहीं पहन लेता हूं,
वो सज्जन मन ही मन मुस्करा दिए। उनका अंदाज सही निकला था। बाज़ार के लिए वे अपने घर से एक सौ पचास ही लेकर चले थे, क्योंकि इससे ज़्यादा उनके पास कुछ था भी नहीं, आज बढ़िया सी चप्पलें ले कर ही आयेगे यह सोचकर।
दुकानदार लखन ने चप्पल को डब्बे से निकाल बाहर रख दिया, लीजिए तभी अचानक उस सज्जन की नजर सामने की शेल्फ पर पड़ी। वहाँ रंग -बिरंगे खिलौनों का ढेर लगा हुआ था।
उनकी आँखों में बिजली की भांती नन्ही मीतू का चेहरा घूम गया। कितनी उदास थी वो सुबह
"क्यों डब्बू , यह गुड़िया कितने की है?"
"भैया जी , आपसे क्या ज्यादा लूँगा ?? यह सौ की है ,आप अस्सी दे देना। यह सजावट वाली वाली दो सौ की है, बोनी का टैम है डेढ़ सौ दे देना।
आवाज़ भी करती है।"
पों पों पों पों.....उसने गुड़िया बजाकर उस सज्जन को दिखा भी दिया ।
वाह बिल्कुल जीवित नजर आती है , मन में गहरी कशमकश चल रही थी, कुछ पल विचार करने के बाद उस सज्जन ने कहा "लाओ, यही दे दो।
" सज्जन ने उसे डेढ़ सौ रुपए थमाए औऱ फ़िर उस गुड़िया को अपनी थैली में रखते हुए अपनी सात साल की बेटी मीतू के खुश होने से पहले ही ख़ुद व्यापक आनंद में झूम उठे ।
"भैया , अपनी चप्पल तो ले जाओ।" लखन ने पीछे से आवाज़ लगाई।
" फिर औऱ क़भी लखन भाई । अभी तो पुरानी ही ठीक-ठाक काम दे रही हैँ..."इतनी बुरी भी नहीं है।
.....कहते हुए उन्होंने अपनी जर्जर चप्पलो पर नजर डाली , ठीक ठाक तो है फिर मुस्कराए और सरपट गाँव की सड़क पकड़ ली।
एक दिन जियूंगा अपने लिए भी...
ये सोच कर पिता ने सारी उम्र गुज़ार दी...!!
आज से कुछ साल पहले तक ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों के हालात इस कहानी से मिलते जुलते ही थे,
छठवें सातवें वेतन आयोग और सर्विसेज, साफ्टवेयर इंडस्ट्री की तनख्वाह ने इस वर्ग को नये पंख दे दिये हैं,
शायद अब यह चप्पलें और गुडिय़ा दोनों खरीद सकता है, पर कुछ के लिये अभी भी शायद है....!!
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