कबाड़


 कबाड़

"आपके घर पुताई होते हुए देखकर ही मैं समझ गया था कि इस बार तो बहुत सामान मिलने वाला है...।" कबाड़ खरीदने वाले ने अपने ठेले पर सामान भरते हुए कहा।

"आजकल धंधा कैसा चल रहा है काका...?" संजय ने कुछ और सामान उसकी और बढ़ते हुए पूछा।

"अच्छा चल रहा है... इस घर से ही करीब चालीस बरस हो गए मुझे... पुराना सामान लेते हुए... मैंने तो तुम्हारी दादी तक से भी बहुत जूना-पुराना सामान लिया है बाबू और वह भी जब भी सामान निकालती थी तो मेरी ही राह देखती थी...।"

"हाँ... वह तो मैं भी बचपन में देखा करता था। अब तो मेरी ही उम्र पचास हो चली है तो मेरे ख्याल से आप तो सत्तर के करीब होंगे?"

"हाँ ... पूरा जीवन ही इस धंधे में गुजार दिया...।"

"पर पहले की तरह अब भी चल रहा है धंधा...?"

" धंधा तो पहले से अच्छा चल रहा है ... नहीं तो इस उम्र में क्यों घूमता... पहले तो लोग पुरानी चीजों को कितना दिल से लगा कर रखते थे... टूटी-फूटी फ्रेम देते हुए भी कितने हाथों को मैंने कांपते हुए उसे वापस उठने देखा है... फ्रेम से चिपकी हुई तस्वीरें जिन पर पानी उतर आया हुआ होता । चेहरे तक पहचान में नहीं आते, फिर भी उन्हें बरसों-बरस संभाल कर रखते देखा ।कभी देना भी पड़ता तो वही पानी मैंने  आँखों से निकलते देखा...।"

"मतलब अब ऐसा नहीं है...?"

"अरे !बाबू ... अब तो ... साल भर पहले खरीदा सामान भी पुराना हो जाता है... हर पुरानी चीज़ लोगों को कबाड़ लगने लगी है।"

"तो यह तो आपके धंधे के लिए अच्छी बात है...।"

"धंधे के लिए तो अच्छी बात है...पर...।"

" पर क्या?"

"सोचा नहीं था... दुनिया इतनी जल्दी बदल जाएगी... अब न घरों में पुराना सामान मिलता है ....न पुराने लोग।"

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