समझौता


 

* समझौता *

                     हमेशा सही नहीं होता..

"हे भगवान! अच्छी बहू पल्ले पड़ी हैं मेरे। खाना बनाना भी नहीं आता। तीन महीने हो गए शादी को लेकिन अभी तक वही के वही हाल। यह खाना कोई खाने लायक है। आज भी मुझे भूखा ही उठना पड़ेगा। नमन के टिफिन में तो आचार ही जाएगा आज। अपने ही घर में रोटी भी ढंग की नहीं मिलती"

सासू मां का बड़बड़ाना बदस्तूर जारी था। खाना खाती जा रही थी और खाते खाते दो बातें सुनाए जा रही थी। पर मजाल है कि घर में कोई और सदस्य कुछ कह जाए। वैसे भी सासू मां धीरे तो बोलती है नहीं, तो रसोई में काम करती सुनैना को सब कुछ साफ-साफ सुनाई दे रहा था। पर उसे तो नमन को भी टिफिन पैक करके देना था। इसलिए सासु मां की बातों में ध्यान देने से अच्छा जल्दी जल्दी हाथ चलाने में लगी हुई थी।

 

दरअसल आज सुनैना ने आलू की रसेदार सब्जी बनाई थी। घर में छाछ नहीं थी। उसने घर में सभी से कहा लेकिन कोई लाने को तैयार नहीं था, तो उसने छाछ की जगह टमाटर डाल दिये। सासू मां और नमन को आलू की सब्जी में छाछ पसंद है। बस उसी बात को लेकर उनका बोलना जारी था।

 

सुनैना जब भी खाने में कोई बदलाव करती या कुछ नया करती, तो घर में कोई भी आसानी से पचा नहीं पाता। यहाँ तक की उसका पति नमन भी नहीं। इसीलिए टिफिन में पराठे के साथ आचार रखा और दो लेक्चर पति की तरफ से भी सुने,

" जब पता है कि कोई खाता नहीं है तो बनाती क्यों हो। अपने आप को तो बिल्कुल भी बदलने की कोशिश नहीं करती"

सुनैना ने चुप रहना ही ठीक समझा। थोड़ी देर बाद अपने लिए खाना ले कमरे में चली गई और खाना खाने बैठी थी कि सासू मां ने बाहर से ताना मारा,

 

" अपना ही पेट भरो बाकी तो सब को भूखा मारो"

 

सुनैना का जी तो चाहा खाना छोड़ कर उठ कर खड़ी हो जाए, पर अन्न का अनादर नहीं करते यही सोच कर जैसे तैसे दो पराठे खाए और अपने काम पर लग गई।

 

अक्सर ही ऐसा होता था। इस घर में अगर जरा सा भी खाने में कोई बदलाव हो जाता तो सुबह से शाम तक जब तक दस बार सुना नहीं दिया जाता था, किसी का भी खाना हजम नहीं होता। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ यह घर में ही होता है अगर बाहर भी खाना खाने गए हैं तो खाना वही पड़ेगा जो सब खा रहे है।

 

अभी तीन दिन पहले सासू मां, नमन और सुनैना का एक साथ मार्केट जाना हुआ। आते समय रास्ते में चाट पकौड़ी खाने की इच्छा हुई तो सासू मां और नमन ने अपने लिए छोले टिकिया आर्डर किए, जबकि सुनैना की डोसा सांभर खाने की इच्छा हुई। लेकिन नमन छोले टिकिया ही लेकर आया,

"नमन जी मेरी यह खाने की इच्छा नहीं है। मुझे तो डोसा सांभर खाना था"

" अरे भला वह भी कोई खाने की चीज है। इसे खा कर देखो बहुत टेस्टी है"

" हां मैं मानती हूं टेस्टी है पर मेरी इच्छा..."

" अब तुम्हारे लिए अलग से क्या लेकर आता"

"पर दोनों की कीमत तो बराबर ही है"

" देखो बहू, बात पैसों की नहीं है। जो सब लोग खा रहे हैं वही तुम्हें खाना पड़ेगा" अबकी बार सासु माँ ने कहा तो सुनैना कुछ भी कह नहीं पाई।

सुनैना का जी भर आया पर चुपचाप छोले टिकिया खाए और सबके साथ घर रवाना हो गई। आज शाम को ननद के होने वाले सास ससुर रहे थे। तो घर में छोले भटूरे बन रहे थे। सुनैना को छोले ग्रेवी वाले पसंद थे, जबकि सभी को छोले रसेदार पसंद है। सुनैना जब छोले बनाने लगी तो उसने ग्रेवी के साथ एक कटोरी छोले निकाल लिए और बाद में पानी डालकर उसे रसेदार कर दिया। जब सासु मां ने उस एक कटोरी छोले को देखा तो उन्होंने उसी बात को लेकर हंगामा कर दिया,

 

" बहु यह एक कटोरी छोले अलग क्यों निकाल कर रखे हैं"

" मम्मी जी मुझे भटूरे के साथ रसेदार छोले पसंद नहीं है, तो मैंने अपने लिए थोड़े से कटोरी में निकाल कर रखे हैं"

" अब एक ही घर में तुम दो भात करोगी। क्या कमी होती है रसेदार छोले में, जो तुम इस तरह की हरकत कर रही हो। हम सबको तो इसी तरह के छोले पसंद है। कल को नई बहू आएगी तो तुम उसे भी यही सब सिखाओगी"

 

" मम्मी जी मैंने ऐसा क्या गलत कर दिया जो आप इस तरह की बातें कर रही हो"

" मुझे जवाब देती हो तुम। नमन अभी के अभी किचन में आओ, मुझे तुमसे बात करनी है"

 

मां की तेज आवाज सुनकर नमन रसोई में गया। उसके साथ साथ घर के दूसरे सदस्य भी गए। सासू मां ने छोले की कटोरी नमन की तरफ करते हुए कहा,

 

" देखो तुम्हारी पत्नी को। अपने लिए अलग से छोले निकाल कर रखे हैं इसने। पता नहीं और क्या-क्या हरकतें करती होगी हमारे घर में"

नमन ने गुस्से से सुनैना की तरफ देखा,

" सुनैना, क्या है यह सब? तुम इस तरह की हरकतें क्यों कर रही हो"

" नमन जी मुझे रसेदार छोले नहीं भाते इसलिए मैंने अपने लिए सिर्फ एक कटोरी छोले निकालकर अलग रखें"

 

" तो जो सबके लिए बनता तुम वह नहीं खा सकती क्या?? थोड़ा तो बदलाव करो अपने में"

अपने पति की बात सुनकर सुनैना की आंखों में आंसू गए,

" बदलते बदलते इतना बदल गई कि कहां खो गई पता ही नहीं चला। आप सब लोग एक दिन भी अपने खाने के स्वाद में बदलाव नहीं कर पाते तो सोचो बचपन से लेकर अब तक मैंने जो स्वाद मेरे मुंह पर रखा, उसको कैसे बदल दूँ।

आप लोगों का खान-पान हमारे घर के खानपान से बहुत अलग है। पर फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि मैं इस घर के हिसाब से अपने आप को एडजस्ट करूँ। पर नहीं, एडजस्ट तो सिर्फ बहू को करना है, घर के लोगों को नहीं। जो आप लोग चाहो, वही मैं खाऊं। यह क्या बात हुई?? मैंने कौन सा अलग से खर्चा करके कुछ और बनाया है। जो बन रहा था उसी में से कटोरी निकालकर अलग रखा था।

सौ दिन में अगर एक दिन मैंने मेरी मर्जी का खा लिया तो क्या फर्क पड़ गया। हमेशा तो आप लोगों की मर्जी के अनुसार ही खाती हूं। जब देखो तब जो सब खाते वही तुम खाओ तो कभी आप लोग भी तो मेरी मर्जी का कुछ खा लिया करो। आखिर मैं भी तो इसी घर के सदस्य हूँ ना। आप लोग भी तो अपने अनुसार जब टेस्ट बदलना चाहते हो तो बाहर खा लेते हो। अब बहू तो अकेली बाहर भी नहीं जा सकती तो भला टेस्ट कैसे बदले?? मेरी इच्छा का सम्मान करना भी आपकी जिम्मेदारी है। जब मैं आपके अनुसार खा सकती हूँ तो क्या आप कभी मेरे अनुसार नहीं खा सकते"

 

सुनैना की बातों का किसी के पास कोई जवाब नहीं था। लेकिन ससुराल था। जाहिर सी बात है फर्क तो किसी को पड़ा नहीं। बस फर्क पड़ा तो सुनैना को। वो थोड़ी सी बेपरवाह हो गई। अब सुनैना अपनी इच्छा अनुसार खा लिया करती थी। जिसको चिल्लाना हो, चिल्लाते रहे। आखिर रहना तो उसे उसी घर में है। कब तक मन मार कर रहेगी।

 

शुरू शुरू में तो हंगामा हुआ। लेकिन जब देखा कि सुनैना पर कोई असर नहीं हो रहा है। तो धीरे-धीरे सब अपने आप ही चुप हो गए।

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