करवाचौथ विशेष,,एक व्रत ऐसा भी
‘एक व्रत ऐसा भी’ (कहानी)
“आजा मेरी कटरीना, पिछली बार मेरा मुंह सूंघ कर स्वाद ले रही थी न इसीलिए आज तेरे लिए अंग्रेजी लाया हूं. आजा दो दो लगाएं फिर चलें अपनी दुनिया में.” समाज के सभ्य आदमी (जिसने अपनी सभयता को कुछ देर पहले खूंटी पर टांगा था) ने बोतल की सील तोड़ते हुए आईने के सामने अपने बाल संवारती मंजू से कहा.
“न साहब आज नहीं पीएगी मैं.” मंजू ने मुस्कुरा कर जवाब दिया.
“काय कु नई पीयेगी भला. नाराज है क्या मेरे से. देख मैं अपनी बीवी को झूठ बोल कर आया सिर्फ तेरे वास्ते. पता नई कौन सा जादू कर दी है तू मुझ पर.” ये मंजू का ही नशा था जिससे बिना पिए ही साहब की ज़ुबान ने अपने बोलने का लहज़ा बदल दिया था.
“नई साहब आपसे कैसा नाराजगी. एक आपईच तो हो जो अपन को मानते हो.”
“फिर काय कु नई पीएगी. महंगा वाला ब्रांड है घूंट भर ले.” साहब ने मनुहार करते हुए मंजू से कहा.
“नई साहब, आज अपन व्रत है करवाचौथ का. पहले आपका कोई बात नहीं टाली मैं पण आज जोर न लगाओ अपन को.” व्रत वाली बात सुन कर साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ. एक ही पल में उनके दिमाग में ये सवाल उछल कूद करने लगा कि ये गंदे बाज़ार की गंदी औरत भला किसके लिए व्रत रखेगी. इसका पति होता तो यहां क्या करती ये.
“तू और व्रत ! मगर किसके लिए ?” साहब ने उत्सुकतावश पूछ ही दिया.
“अपने मरद के वास्ते !” मंजू जिसकी मुस्कान ही उसका सबसे बड़ा हथियार थी, जिसने इस मुस्कान से इस साहब जैसे कई साहबों के तन से सभ्यता का चोगा उतरवा दिया था, मुस्कान जिसने दर्द में भी इसका साथ नहीं छोड़ा था, वो मुस्कान पति का नाम आते ही उसके चेहरे से ऐसे गायब हुई जैसे छूते ही पानी का बुलबुला.
“पति है तेरा? तूने कभी बताया नहीं. कहां है अभी वो ?” साहब ऐसे अचंभित थे जैसे मृत्यु का रहस्य जान गए हों.
“उसमें बताने जैसा कुछ है इच नहीं साहब. इंसान बात उसकी करता है जिससे या तो वो सबसे ज्यादा प्यार करता है या सबसे ज्यादा नफरत. पण वो न मेरे प्यार के लायक है न नफरत के. अपन को उससे बस घिन है, इतना घिन कि उसका नाम लेते अपन के मुंह का स्वाद घिनघिना हो जाता है, उसका खयाल आते आसपास से अपन को सड़ी लाश सी बदबू आने लगती.” कहते हैं जब इंसान गुस्से में होता है तो उसकी आँखों में खून उतर आता है लेकिन अभी उसकी आँखों में खून उतरने की बजाए सूखा पड़ गया था. ‘सूखा’ उस रेगिस्तान की मानिंद जहां कहां इंसान के हलक से गटकने वाला थूक तक सूख जाता है. वो बहा चुकी थी अपनी आँखों से खून, पानी सब अब बस उसकी आँखों में मातम था.
“तू कहती है उसके लिए घिन है तेरे मन में और उसके लिए व्रत भी रखती है...ये मुझे समझ नहीं आया.” साहब के ज़हन में अटका ये सवाल उन्हें उतना ही परेशान कर रहा था जैसे गले में फंसा रोहू मछली का कांट.
“जानते हैं साहब, तब अपन यही कोई 14 की रही होएंगी जब अपन के बाप अपन को इसके लड़ बांध दिए. ये कहता शहर में इसका बढ़िया नौकरी, घर सब है. मेरा बाप इसके झांसे में आ गया और भेज दिया अपनी बच्ची को उसकी उम्र से तिगुने इंसान के साथ. जब अपन यहां आई तो देखा कि इसका तो धंधा ही है दूर गाँव से गरीब बच्चियों को ब्याह कर यहां लाना और इस बाजार में बेच देना. यहां लाते ही इसने मुझे दरिंदों के सामने परोसना शुरू कर दिया. मैं कुछ न कर पाई. रोई चिल्लाई भागना भी चाह मगर पकड़ी गई. करेंट लगता था मेरे को, कहता था तू रोजी है अपनी तेरे को मैं मरेगा नहीं. इसकी वजह से अपन ने नरक काटा साहब. हर रोज़ तरसी है मैं मौत के लिए. आज वो भयानक बीमारी में है, उसका पूरा जिस्म धीरे धीरे सड़ रहा. खाट पर पड़ा रहता है गंदगी के बीच. मैं जानती इस बखत उसका सबसे बड़ा इच्छा होगा मौत पण अपन चाहती है वो जिए, लंबा जिए. हर रोज़ मौत का भीख मांगे मगर उसे मौत न मिले. मैं सुनी कि ये व्रत करने से पति का उम्र लम्बा होता. इसीलिए करती मैं ये व्रत. मैं चाहती कि जैसे अपन का जिस्म भेड़ियों ने नोचा वैसे ही इसका जिस्म कीड़े खाएं.” कहते कहते मंजू चिल्ला उठी...सालों बाद उसकी आँखों से आज पानी बरसा.
साहब इतने सहम गए कि उनके हाथों से जाम छूट गया. कमरे में अब मंजू की दबी हुई चीखें जो अब बहार निकल रही थीं, के सिवा कोई और आवाज़ न थी. साहब जिन्हें कभी मनोहर ने ही मंजू से मिलवाया था डरे सहमे से मंजू के इस अलग से रूप को एक टक देखे जा रहे थे.
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