उन्मुक्त परवाज़
उन्मुक्त परवाज
एक समय था
जब बेटियों को
इतना पढ़ा दो कि ससुराल
से मायके चिठ्ठी पत्री
लिख -बांच सके
। फिर बदलते
फैशन के साथ समाज का
ऊपरी चोला आधुनिक
हो गया है ।
याद रहे इसे
ऊपरी चोला कहा
है । अब सभी को
पढ़ी लिखी बहू
चाहिए । माता पिता पर
भी बेटियों को
पढ़ाने का दबाव बना है
ताकि उन्हें अच्छा
घर और वर मिल सके
।
आर्थिक सहारा
मिले ये सोचकर
कई परिवारों की
शर्त नौकरी वाली
बहू की भी होती है
। बेटियों
को इसलिए शिक्षित
किया जा रहा है कि
शादी के बाद भगवान ना
करें कोई विपदा
आन पड़ी तो बिना पति
किसी पर आश्रित
न रहना पड़े
।
शायद पढ़ी लिखी
लड़की होने पर माता पिता
को दान दहेज
भी कम देना होगा ।
लड़को को पढ़ी लिखी पत्नी
चाहिए ताकि होने
वाले बच्चों को
वो पढ़ा सके ।
लड़की की पढ़ाई
का अंतिम उद्देश्य
यही है कि विपरीत समय
में शिक्षा हथियार
बने , पिता का दहेज बोझ
कम हो , पति
के लिए अतिरिक्त
वित्तीय सहारा और
अनुकूल समय में बच्चों के
होमवर्क करा
सके ।
बेटियाँ अपने सर्टिफिकेट्स
और नौकरी के
बल पर ससुराल
पहुँचती है । 8 से 9 घण्टे
की नौकरी के
बाद थक कर चूर लौटने
पर क्या उसे
भी पुरुषों की
तरह डायनिंग टेबल
पर परोसी हुई
थाली मिलती है
?
क्या कामकाजी
औरतें डिनर खत्म
करने के बाद जूठी थाली
टेबल पर ही छोड़ गीले
हाथ पोछते हुए
टीवी के सामने
बैठ जाती है
?
कामकाजी महिलाएँ निश्चित
रूप से दोहरा
बोझ झेलती है
। आफिस में
काम का दबाव और लौटने
के बाद बिखरी
गृहस्थी को समेटना
।
एक समय
के बाद यदि पति की
आर्थिक स्थिति मजबूत
हो जाए तो पत्नी का
घर पर न रहना पति
को असुविधाजनक लगने
लगता है ।
तो उस पर
दबाव बनाया जाता
है कि "तुम्हे अब
नौकरी करने की जरूरत नही
है । मैं अच्छा खासा
कमाता हूँ। तुम
मजे से घर पर आराम
करो । जब जरूरत थी
तब तुमने कर
लिया काम ।
पत्नी को
नौकरी की जरूरत
है या नही इस निर्णय
का अधिकार भी
पति को होता है ।
लोग ये कैसे भूल जाते
है कि एक इंसान रिश्तों
में स्नेह रखने
के बावजूद अपने
निजी सफर में भी है
?
हो सकता
है पत्नी को
अपने कार्यक्षेत्र की
चुनौतियाँ लुभाती हो
, सर्वश्रेष्ठ करके दिखाने
की लालसा उसे
आकर्षित करती हो और खुद
को साबित करने
का प्रण उसमें
ऊर्जा भरता हो ।
एक शिक्षित महिला अपनी
रचनात्मकता , सम्भावनाओं , कौशल और रुचियों को समेट कर रसोई,
त्यौहार और राशन तक ले
आती है ।
ये हुनर
वास्तव में महिलाओ
के पास है कि अपने
शैक्षणिक सर्टिफिकेट्स , जॉब एक्सपिरीयन्स
सर्टिफिकेट जो उसके
अतीत की गर्वीली
जमापूंजी होते है
को सलीके से
फाइलिंग कर अलमारी
में लॉक कर देती है
।
स्वयं को
समझाती है कि बच्चों की
सुविधा के लिए उसका घर
पर रहना जरूरी
है । अब उसके पति
को वित्तीय मदद
की जरूरत नही
। खोया उसकी
पूरी पढ़ाई , शिक्षा
, सर्टिफिकेट सिर्फ एक
पुरुष को "मदद
चाहिए या मदद
नही चाहिए" के
लिए ही की गई थी
।
सोचिए अब
उसके जीवन में
क्या है ?
सुबह से रात
तक घर सहेजना
, रसोई के राशन की लिस्टिंग
करना , वाशिंग मशीन
लगाने से पहले पूरे घर
में घूम घूम कर धोने
के कपड़े ढूँढना
, बाई के आने से पहले
जूठे बर्तनों में
पानी भरना ,चाय नाश्ता
, टिफ़िन , फ्रिज व्यवस्थित
करना ।
रोज घर से
बाहर निकलने वालों
को तैयारी करके
देना , शाम काम से लौटने
वालों को भीतर आते ही
हाथों में चीजे
थमाना
सबके काम करके
देना का उसको संतोष भी
होता है । अपने परिवार
के लिए करने
में भी एक प्रकार का
सुकून है । अगर थोड़ा
सम्पन्न परिवार है
तो महिलाओं की
महीने में दो चार किटी
पार्टी हो जाती है
। कितनी ही
महिलाएँ है जो अपनी रुचियों
और हुनर को घरेलू जिम्मेदारियों
में भूला बैठी
। ये
सच है कि पुरुषों को भी नौकरी की
जिम्मेदारी में बहुत
कुछ त्यागना पड़ता
है लेकिन दोनों
में बहुत बड़ा
अंतर है । पुरुषों को अपनी मेहनत के
अनुशंषा स्वरूप प्रमोशन,
अप्रेजल , बोनस , सैलरी
हाइक, बेस्ट
परफॉर्मर अवार्ड मिलते
है । मैं उनकी इन
उपलब्धियों को पैसे
के रूप में बिल्कुल नही तौल रही है
लेकिन प्रोत्साहन के
छोटे स्वरूप बताते
है कि हम सही दिशा
में आगे बढ़ रहे है
, पिछली बार से और बेहतर
हुए है । कार्यक्षेत्र
की ये उपलब्धियाँ
बेहतरी की स्वीकारोक्ति
है , एक पायदान
ऊपर का प्रमाण
है । ऐसी पदोन्नत्तियाँ जीवन को हौसला और
प्रेरणा देते है ।
जिन योग्य महिलाओं
ने जिम्मेदारियों को
देखते हुए घर पर रहने
का फैसला लिया
उनके जीवन का प्रेरक तत्व
, प्रोत्साहना , जीवन ऊर्जा
या सांत्वना पुरस्कार
क्या है ??? कभी कभी
उसके बनाए खाने
की तारीफ , सलीके
से सजाए घर पर प्रशंसा
की एक नजर ही उसके
जीवन के अप्रेजल
है जिसे एक कम्प्लीमेंट के रूप में परिवार
को समय समय पर देते
रहना चाहिए । कई
बार तो उसके त्याग को
एक समय के बाद
" जॉब छोड़ना तुम्हारा
निजी फैसला था"
कह पल्ला झाड़
लिया जाता है या बरसों
बाद जब वो इस दुनियादारी
प्रतियोगिता में पिछड़
चुकी होती है तो सुनने
मिलता है "तुम लाइफ
में कुछ करती
क्यो नही ?? घर
से कुछ करो । " ऐसा
सुनकर महिलाएँ खुद
को ठगा हुआ पाती है
। कितनी ही
बार बच्चे हीनताबोध
में ला देते है "मम्मी आपको
कुछ नही आता । मेरे
दोस्त की मम्मी
जॉब करती है इसलिए स्मार्टली
चीजे हैंडल कर
पाती है ।
"
अधिकांश घरों में
महिलाओं की रुचियों
को अहमियत नही
मिलती है क्योकि
उनकी रुचियाँ आर्थिक
दृष्टि से अनुत्पादक
है । पुरुष बड़े अहंकार
से अपने शौक
बताते है ।
मुझे फोटोग्राफी का शौक है ,
मैं हर शाम
चार घण्टे चेस
खेलता हूँ , मुझे किताबें
पढ़ने का जुनून
है । किताब कितनी भी
मोटी हो मैं पूरा किये
बिना नही उठता
। क्या
उन्हें एक बार भी ख्याल
आता है कि उनके घर
में भी एक महिला है
और उसकी भी कई रुचियाँ
हो सकती है लेकिन अपनी
रुचियों के हिस्से
का वक्त वो कपड़े धोने
, रसोई के इंतजाम
, बच्चे को पढ़ाने
, गृहस्थी की व्यवस्था
, मेहमानों के आव
भगत और डस्टिंग
के लिए करती
है । मध्यमवर्गी
परिवारों में जहाँ
हर काम के लिए बाई
रखना सम्भव नही
है वहाँ बच्चों
की परीक्षा की
वजह से वो पुरुषों की तरह अकेली ही
पारिवारिक समारोह अटैंड
करने नही जा पाती क्योकि
फिर घर में खाना कौन
बनाएगा ?? सबके कपड़े
कौन धोएगा ?? ये
कड़वा सच है कि महिलाओं
के लिए अवसर
कम है , कार्यक्षेत्र
सीमित है और योग्यताओं को कम आंका जाता
है ।
पुरुष कहते है
कि महिलाएँ राजनीति
पर पकड़ नही रखती
है । ये भारतीय परिवार
की डिजाइन है
कि पुरुष टीवी
पर समाचार सुनते
हुए या राजनैतिक कॉलम पढ़ते
हुए घर की महिला के
हाथों बनाई चाय
पीता है । किसी भी
परिवार में महिलाओं
से राजनैतिक चर्चा
की ही नही जाती क्योकि
पुरुष के दिमाग
में भरा है कि वे
सिर्फ टीवी पर "ये
रिश्ता क्या कहलाता
है ?" सीरियल
के मानसिक स्तर
की है । महिलाओं
में राजनैतिक समझ
नही होती उनके
पढ़ने के लिए गृह शोभा
, मनोरमा के स्तर
का साहित्य ही
काफी है । इसमें अलग
अलग रैसिपी और
आधुनकि फैशन व मेकअप टिप्स
दिए होते है ।मैंने कितने
ही परिवारों में
सुना है "सुनो देवी
जी तुम तो अपनी किटी
खेलों या मॉल की 50% डिस्काउंट
वाली सेल देख आओ ।" पुरुष
बुद्धिमान स्त्री का
सम्मान करते है बशर्ते वो
उनके परिवार की
न हो । क्या घर
गृहस्थी सम्हालने के
बाद पुरुष अपने
परिवार की महिलाओं
के किताबे या एडिटोरियल
पढ़ने , राजनैतिक बहस
को सुनने के
वक्त का सम्मान
करते है
?? अगर आप इस सत्य को
मानने से इनकार
कर रहे है तो याद
करिए सिर्फ महिलाओं
या पत्नियों के
"सामान्य ज्ञान के
अभाव" को
लेकर इतने चुटकुले
नही बनाए जाते
।
मैं पूरे
भरोसे से कह सकती हूँ
कि पुरुष यदि
इतिहास , पुरात्तव, राजनीति , यात्रा
संस्मरणों पर
सागर जितनी स्याही
खाली कर सकता है तो
एक महिला अमूर्त
कोमल भावनाओं को
अक्षरों में जिस तरह ढाल
सकती है वैसी जादूगरी पुरुष शायद
ही दिखा पाए
। घर
, परिवार के
भीतर की ढँकी कहानियाँ , रिश्तों की
कारीगरी , अबोले
को लिपिबद्ध करने का जादू तो
एक लेखिका ही
कर सकती है । प्रकृति
ने यदि पुरुष
को शारीरिक रूप
से शक्तिशाली बनाया
है तो क्षतिपूर्ति
के रूप में महिलाओं को मन पढ़ने की
विलक्षण दक्षता दी
है ।
यकीन करिए समाज
यदि उसे सार्थक
संवाद की सहभागिता
से बाहर करेगा
तो वो दिमाग
पढ़ना सीख लेगी
, नीयत सूंघने खुद
को प्रशिक्षित कर
लेगी , खामोशी के
श्रवण का कौशल विकसित कर
लेगी । कहने वाले
ने बहुत सोच
समझ कर कहा है कि
"हर सफल पुरुष
के पीछे एक महिला होती
है ।" सफल पुरुष
के पीछे खड़ी
महिला है जो अपने परों
को खुद काट कर उस
पुरुष के सपनों
पर से जिम्मदारियों
का बोझ हल्का
कर उन्मुक्त परवाज़
देती है ।
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